देवभूमि ऋषिकेश में, गंगा किनारे भ्रमण करते हुए, साथ चलते व्यक्ति ने एक परिवार की बात रखते हुए कहा कि उसके बच्चे पढ़े लिखे हैं क्या ?
देवभूमि ऋषिकेश में, गंगा किनारे भ्रमण करते हुए, साथ चलते व्यक्ति ने एक परिवार की बात रखते हुए कहा कि उसके बच्चे पढ़े लिखे हैं क्या ? उन का तात्पर्य था की वह कुछ कमाते भी हैं क्या.
मैंने इसी विषय को लेकर चिंतन किया. क्या पढ़े लिखे होने से कमाई हो जाएगी. पढ़े-लिखे को परिभाषित करना चाहिए. पढ़ें-लिखे की परिभाषा क्या है। कुछ डिग्रियां हासिल हुई, तो क्या वह पढ़ा लिखा है। हमें पढ़े लिखे और कुछ डिग्रीया प्राप्त बच्चे चाहिए या सुशिक्षित, होनहार, ज्ञानी, व्यवहारिक और समझदार बच्चे चाहिए। यह बेहद चिंता का विषय हो सकता है मगर हकीकत से हम भाग नहीं सकते। पढ़े-लिखे की परिभाषा को दर्शाना ही होगा। सिर्फ स्कूल कॉलेज विदेशों में जाकर अपनी जवानी के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष गवा कर आ गए और जमीनी हकीकत से दूर हो गए। विषय का ज्ञान नहीं आया। अपने आप को सुरक्षित नहीं किया। अपने आप को व्यवहारिक नहीं किया। अपने आप को जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं किया। समाज कैसे चलता है, परिवार कैसे चलता है और हमें किस दिशा में आगे बढ़ना है, अगर यह सब नहीं सीखा तो हम उस व्यक्ति को पढ़ा लिखा कैसे बोल सकते हैं।
हमें इस बात पर भी गौर करना पड़ेगा की चंद शब्द अंग्रेजी के आ गए तो क्या हम पढ़े लिखे हो गए। कांटा चम्मच से खाना खाने लग गए, तो हम पढ़े लिखे हो। विदेशों में खाने वाले खाद्य पदार्थ या विदेशों की परंपरा और संस्कृति, वहां का पहनावा, हमने अपना लिया तो क्या हम पढ़े लिखे हो गए। हमारे देश की संस्कृति, परंपरा, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन को हमने त्याग दिया और विदेशों का अपना लिया तो क्या हम पढ़े लिखे हो गए।
बच्चे को ना तो संस्कृत पढ़ाई, न संस्कृति सिखाई, संस्कार से दूर रखें तो क्या बच्चे को हमने आधुनिक शिक्षा में डाल लिया। गहन सोच के विषय हैं।
भारत देश हजारों साल पुराना है। यहां की संस्कृति, यहां की परंपरायूं, रोजमर्रा की जिंदगी व उसके अध्ययन से तैयार की गई है। इसको समय-समय पर परखा गया है। इसकी परीक्षा ली गई है और उसके बाद यह तैयार हुई। आज विदेशी हमारे देश के पुराने ग्रंथ का अध्ययन कर रहे हैं। हमारी योगा प्रणाली के लाभ का अध्ययन कर रहे हैं। ऋतु अनुसार खानपान के तरीके, हमारे यहां के मसालों का उपयोग आदि का अध्ययन कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश हम लोग इन चीजों से दूर हो रहे हैं। क्या हम सत्यता की ओर, प्रगति के रास्ते की ओर बढ़ रहे हैं या विकास के नाम पर विनाश की ओर जा रहे हैं।
हर तरफ विनाश दिख रहा है चाहे वह हमारी संस्कृति हो, चाहे
हमारा खान-पान हो , चाहे हमारी सभ्यता, परंपरा, उत्सव या पहनावा हो, सब हमारी प्राकृतिक सौंदर्यता से हमे हटाकर एक अप्रकृतिक जिंदगी में लेकर जा रहा है। हम अपने आप को जमीनी हकीकत से दूर करते जा रहे हैं ऐसा प्रतीत होने लगा है। इस ओर भी ध्यान दिलाना जरूरी है ।
देव भूमि, ऋषिकेश में, गंगा किनारे भ्रमण करने जब निकला, तो कानों में एक गाने की पंक्ति सुनाई दी दुनिया में आए हैं तो जीना ही पड़ेगा जीवन
देव भूमि, ऋषिकेश में, गंगा किनारे भ्रमण करने जब निकला, तो कानों में एक गाने की पंक्ति सुनाई दी दुनिया में आए हैं तो जीना ही पड़ेगा जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा। गंगा जी के तट पर जब मैं ध्यान लगाने बैठा, तो व्याकुल मन में एकाग्रता दिख नहीं रही थी। निर्मल गंगा, कल कल करती बह रही थी। सााए साए करती, शीतल पवन चल रही थी। उसके बावजूद मैं अपने आप को ध्यान मग्न में केंद्रित करने का प्रयास में विफल हो रहा था। हर बार उस गाने की वह पंक्तियां मुझे विचलित करती रहती। मन में विचार आया कि कहीं ना कहीं इन पंक्तियों की सत्यता पर विचार करने हेतु मन भटक रहा है।
ध्यान आया कि शायर ने यह पंक्तियां किसी जानवर को ध्यान में रखकर लिखी होगी। अगर मनुष्य के लिए लिखा होता तो जानवर और मनुष्य में कोई फर्क ना रहता। अतः यह पंक्तियां निश्चित रूप से जानवर को ध्यान में रखकर लिखी गई होगी । फिर विचार आया कि मनुष्य भी एक प्रकार का प्राणी। तो यह पंक्तियां मनुष्य के लिए क्यों नहीं? सोचा कि कहीं हम निर्णय लेने में जल्दबाजी तो नहीं कर रहे। गहराई से चिंतन में मगन हो गया। सारी बातों को सारी परिस्थितियों का विश्लेषण किया गया। फिर ध्यान आया कि मैंने स्वयं सातवीं कक्षा में निर्णय लिया कि मैं चार्टर्ड अकाउंटेंट बनूंगा। यह ऐसा निर्णय था जिसके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। फिर भी अपनी मंजिल का निर्णय ले लिया गया । रास्ते की तलाश करते करते अपनी मंजिल पर पहुंच गया। इससे एक आत्मा विश्वास होता है कि नहीं वह पंक्तियां मनुष्य के लिए नहीं हो सकती। मनुष्य अपना जीवन स्वयं ढाल सकता है।
जीवन कैसा भी हो मनुष्य उसको अपनी सोच के अनुरूप बदल सकता है। जहर को अमृत कर सकता है और अमृत को जहर कर सकता है। यह उसकी सोच के ऊपर निर्भर करता है।
भगवान ने हमें मनुष्य का जीवन दिया है। सोचने के लिए दिमाग दिया है। तो निश्चित रूप से यही निष्कर्ष निकलता है कि मेरा जीवन मैं कैसे जियूं यह मुझे तय करना है। हमें कहीं ना कहीं यह तय करना होगा कि मैं इस शरीर को किस आयु में त्यागूंगा। जब मैं बदन को छोड़कर जा रहा हूं उस समय इस शरीर की सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक आदि पहचान क्या रहेगी। जब मैंने यह तय कर लिया तब मुझे मार्गदर्शन लेना होगा कि मुझे क्या करना होगा कि मै उस ऊंचाई तक पहुंच सकू। इस उद्देश पूर्ति के लिए मुझे कौन-कौन से पारिवारिक और सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए उस ऊंचाई तक पहुंचना है इसकी योजना बनानी होगी।
इसके लिए जरूरी है कि मैं बैठूं और अपने पूरे जीवन का नियोजन करूं।
आयु की यात्रा में कौन-कौन से पड़ाव में मुझे क्या-क्या दायित्व निभाना अनिवार्य है, उसके लिए क्या पर्याप्त धन संग्रह हो गया है ? नहीं तो कैसे होगा। इसका भी नियोजन करना होगा। जब कोई भी व्यक्ति या दंपत्ति या परिवार के सदस्य साथ में बैठकर अपने जीवन कार्य की यात्रा का नियोजन कर लेते हैं तो निश्चित रूप से आत्म समाधान होता है। एक मौज की जिंदगी निर्वाह करना आसान हो जाता है । यही सही मायने में जीवन है। हमने जहर को अमृत में कैसे बदलना इसकी तरफ आज गंगा मां ने एक आशीर्वाद दिया।
देव भूमि ऋषिकेश में, राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के सामने, गंगाजी के तट पर, मग्न मुद्रा में, गहन आत्म चिंतन करते हुए, अंतरात्मा से विचार उत्पन्न हुआ कि
देव भूमि ऋषिकेश में, राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के सामने, गंगाजी के तट पर, मग्न मुद्रा में, गहन आत्म चिंतन करते हुए, अंतरात्मा से विचार उत्पन्न हुआ कि घर में जो बच्चे पैदा होते हैं, यह किस की संपत्ति है. क्या जन्म देने वाले मां-बाप की संपत्ति है या जिस परिवार में बच्चे ने जन्म लिया उस परिवार की संपत्ति है.
यह एक शोध का विषय हो सकता है. मगर वाद विवाद, चिंतन और मंथन करके हमें एक निष्कर्ष पर पहुंचना होगा। उसी के अनुरूप उस बच्चे की परवरिश करनी होगी. यह इसलिए की वह बच्चा आगे जाकर अपने जन्म देने वाले मां-बाप, परिवार और देश का नाम रोशन कर सके।
यह बच्चा कौन है ? यह बच्चा परिवार की धरोहर, परंपरा, संस्कृति आदि सभी चीजों को आगे ले जाने वाला है। यह बच्चा परिवार का उत्तराधिकारी बन के रहेगा। यह बच्चा परिवार का व्यापार, धन-दौलत, संपत्ति एवं परिवार सभी को लेकर आगे चलेगा। यह परिवार का एक बारिश होगा।
तो फिर प्रश्न वही आता है कि यह बच्चा किसकी संपत्ति है। जन्म देने वाले मां-बाप की या जिस परिवार में वह जन्म लेता है उस परिवार की।
मन बहुत विचलित है। किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचना इतना आसान नहीं है। सोचा किस दिशा में अपनी सोच को आगे ले जाएं। यह सब बातों की गहराई में जितना जाते हैं उतने ही विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं उड़ान भरने लगती है।
अगर हम इस बच्चे को जन्म देने वाले माता पिता की संपत्ति मानते हैं, तो फिर परिवार के अंदर बाकी बच्चों के साथ इसकी प्रतिस्पर्धा हो सकती है। परिवार के अंदर ही प्रतिस्पर्धा होने लगे तो कहीं ना कहीं व्याकुल मन यह जवाब देता है कि बच्चों की प्रगति में, उनके विकास में और दूरदृष्टि वाली सोच उत्पन्न होने में फर्क आ सकता है। उसकी सीमाएं परिवार तक सीमित हो सकती है। अगर ऐसा हो जाता है तो निश्चित रूप से परिवार के लिए यह एक नुकसान की बात हो सकती है। अतः बच्चे को जन्म देने वाले माता पिता की संपत्ति मांन लेना कितना उचित रहेगा इसके ऊपर भी गहराई से सोचना आवश्यक है।
अगर हम इस बच्चे को जन्म देने वाली माता पिता की संपत्ति ना मानते हुए इसे परिवार की संपत्ति मानते हैं तो फिर परिवार को इस बच्चे को किस दिशा में आगे ले जाना है, परिवार की बच्चे से क्या अपेक्षाएं हैं इन सब बातो को ध्यान में रखते हुए वह बच्चे की परवरिश करें। इससे परिवार का विस्तार हो सकता है। इस ओर भी सोचना उतना ही जरूरी है।
अगर बच्चे को परिवार की संपत्ति मान लिया तो फिर मुश्किल बात आएगी की जन्म देने वाले मां-बाप की क्या भूमिका । व्याकुल मन अपने चित को उठल पुथल करते हुए यह निर्णय लेने में अपने आप को असक्षम महसूस कर रहा था की जन्म देने वाले मां-बाप को हम क्या कहें। आत्म कलह को दूर करते हुए इस विषय का निपटारा करने हेतु मन में कुछ ठोस विचार उत्पन्न हुए।
मन यही कहता है कि बच्चा तो परिवार की संपत्ति ही रहेगा। इस का कारन है की जब जन्म देने वाले मां-बाप परिवार का हिस्सा है तो उनसे जन्मा बच्चा परिवार के बाहर कैसे हो सकता है।
इतना कठोर निर्णय लेने पर व्याकुल मन अपने आप को संभालते हुए यही सोचता है की जन्म देने वाले मां बाप इस बच्चे के विश्वस्त के रूप में परिवार की जवाबदारी लेते हुए परिवार की सोच और दिशानिर्देश के अनुरूप बच्चों को विकसित करते हैं ताकि वह परिवार का एक सक्षम सिपाही बनकर आगे बढ़े और परिवार को देश-विदेश में मशहूर करें. जो धरोहर उसे मिली है उसमें वह अपने जीवन काल में और आने वाली पीढ़ी को उसी के अनुरूप सौंप देंगे.
बहुत गहराई से सोचने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचने का आज प्रयास किया है. मां गंगा ने इस सोच में बहुत बड़ा योगदान दिया। एक अच्छे वातावरण में यह सोच उत्पन्न हुई है.
गांव का स्वावलंबन
आदिवासी इलाके में परिवार के साथ भ्रमण कर रहे थे. साथ में मार्ग बताने वाला स्थानीय व्यक्ति चलते चलते झाड़ में लगे कच्चे आम को तोड़ा और साथ रख लिया. गांव के समीप हमारे भोजन की जहां व्यवस्था थी वहां पहुंचने के पश्चात, भोजन की जब तैयारी हो रही थी तो उस व्यक्ति ने साथ लाए कच्चे आम को भी काटा. खाने के साथ हमें सेवन करने दिया।
यह सब देख कर मन में विचार आया की जीने के लिए, अपना पेट भरने के लिए, कुदरत ने कितनी सारी व्यवस्था तो कर रखी है। हम यह व्यवस्था समझ नहीं पा रहे हैं या यह हमारी प्राथमिकता में नहीं है । क्यों ना हम ह बुनियादी जरूरतों को गांव गांव पहुंचा दे। प्रकृति के इस भेट को सही मायने में समझें और ग्रामीण जीवन जीना आसान बनाएं। जो समय बचे उस में भाईचारा व अन्य उपयोगिता वाले कार्य करें। गांव का स्वालंबन मतलब, वहां के रहने वालों की जो बुनियादी जरूरतें है वे कैसे पूरी हो। इस ओर ध्यान देना आवश्यक है।
आज खाने के लिए अगर गांव-गांव, देहात, दूरदराज के इलाके आदी ऐसी जगहों पर इस प्रकार के पेड़ बोए जाएं जो हमें हमारे पेट भरने के लिए अच्छे सेहत मंद खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराएं। जरा सोचिए अगर हम कटहल, इमली, आम, बेल, (ड्रमस्टिक) मूंगे की फली आदी ऐसे कई बड़े पेड़ है हर गांव में गांव में ऐसे पेड़ पर्याप्त मात्रा में लगाए जाएं और वहां के ग्राम वासियों को इसका हक दे दिया जाए तो उन्हें कितनी चीजें आसानी से उपलब्ध होती रहेंगी।
पानी यह एक दूसरी जरूरत है। भारत देश को भगवान का इतना आशीर्वाद है कि पूरे देश में बारिश तो होती ही है। हर गांव में तालाब की प्रथा थी। समय रहते रहते यह तालाब पानी की जगह मिट्टी से भरने लग गए हैं। आज बड़े बड़े यंत्र हैं। इन तालाबों का पूणः जिनोद्धार करना चाहिए। कितना समय लगेगा? कितना पैसा लगेगा?
हर सांसद को, हर विधायक को अपने अपने क्षेत्र के विकास के लिए पर्याप्त पूंजी मिलती है। एक बार तय हो जाए कि एक 5 साल का कार्यकाल सिर्फ गांव के उत्थान के लिए, वहां की जरूरतों के लिए क्या हम खर्च कर सकते हैं।
पशुधन है हमारे पास। हर गांव में चराई के लिए जमीन हुआ करती थी। क्या तालाबों के पास चराई जमीन लगा दी जाए। वहां पर पानी की व्यवस्था कर जाए तो परिस्थितियां कैसी होगी।
जगह जगह नदिया है। यह बरसाती नदियां को अगर गांव गांव में इनका पानी रोक कर तलाब में परिवर्तित कर दी जाए। नदियों की सफाई करके थोड़ी गहरी कर दी जाए। तो इन में पानी एकत्रित होगा। इससे भूजल भी ऊपर आएगा पृथ्वी ठंडी रहेगी।
गांव को अनिवार्य है प्राथमिक चिकित्सा की। एक महत्वपूर्ण चीज है हमारी पुरानी पारंपरिक जड़ी बूटियों द्वारा निर्मित औषधियां। इन को कैसे विकसित किया जाए। गांव गांव में इनके इस्तेमाल से कैसे उपचार किया जाए। बुनियादी बातें हैं। भारतीय देश की संस्कृति, परंपरा, यहां की शोध बहुत प्राचीन है। अगर इसी को ध्यान से हम समझ गए और उसका सही तरीके से अमल करने लग जाएं तो हमारी चिकित्सा प्रणाली सिर्फ सस्ती ही नहीं बल्कि अच्छी भी हो जाएगी। जड़ी बूटियों की मांग से आदिवासियों का रोजगार भी बढ़ेगा। इस ओर ध्यान देना भी बहुत आवश्यक है।
ग्रामीण वासियों के पास समय रहता है। उसका सदुपयोग भाईचारे के लिए और आपसी ज्ञान बढ़ाने के लिए बहुत जरूरी है। इसलिए हर गांव में एक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जहां ग्रामीण लोग बैठ सकें, मिल सके, चर्चा कर सकें। प्राचीन काल में गांव गांव में मंदिर बनाने की प्रथा थी। मंदिर के सामने खुला आंगन होता था। हमें इस प्रथा को पुनः स्थापित करना है। सुबह, दोपहर और शाम जब समय हो ग्रामीण वासी इकट्ठा हो सकते हैं। सामूहिक प्रार्थना के माध्यम से इकट्ठा हो सकते हैं। आपस में चर्चा करके भाईचारा मजबूत करें और आपस में ज्ञान का आदान प्रदान करें।
समय आ गया है, अब हमें ग्रामीणों की जरूरतों को जानने का। उनकी जरूरत क्या है यह शहर में बैठकर तय नहीं की जा सकती। उनकी जरूरतें क्या है जानने के लिए उन गांवो में जाकर, वहां की जीवन शैली को समझ कर, वहां की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कैसे उस गांव का उत्थान करें, यह विचार करना होगा।
मेरा सभी से अनुरोध है कि जैसे कीचड़ को साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना जरूरी है उसी प्रकार गांव का उत्थान करने के लिए गांव में जाना, समय व्यतीत करना और फिर उसको कैसे ऊपर उठाना यह सब समय की मांग है और हमारा कर्तव्य है।
ग्रामीण युवकों का कौशल विकास किस क्षेत्र में होना चाहिए। गांव के युवक को गांव में ही रोजगार मिले। वह गांव में ही रहे। यह देखना हमारा कर्तव्य है। गांव के युवक को कृषि व पशु पालन, कृषि उपज में कैसे मूल्यवर्धन किया जाए, इन चीजों में उसका कौशल विकास करना समय की जरूरत है। युवक गांव में रहेगा तो शहर की आबादी के ऊपर दबाव नहीं बनेगा। ग्राम में अर्थव्यवस्था को गति मिलती है तो अपने आप हम विकास की ओर अग्रसर हो जाएंगे
अंग्रेजी भाषा ने हमारा कितना नुकसान किया
एक आम धारणा हो गई है की अगर अंग्रेजी नहीं आती है तो वह आदमी अनपढ़ है। आज अंग्रेजी स्कूल में अपने बच्चे को डालने की होड़ लगी है। हिंदी और प्रांतीय भाषा की स्कूले प्राय प्राय बच्चों को तरस रही है। बंद होने के कगार पर है। क्या यह परिस्थिति अनुकूल है। क्या हमने यह स्वीकार कर लिया की अंग्रेजी आना हमारी मातृभाषा सिखने से बड़ी बात है।
इस ओर भी अध्ययन करना जरूरी है। किसी भाषा का आना महत्व का है या अलग-अलग क्षेत्र में ज्ञान लेना, जीवन शैली कैसी हो उसका ज्ञान लेना, प्राकृती पर्यावरण का ज्ञान लेना, एक उच्च सिद्धांत स्थापित करते हुए समाज को आगे ले जाना। अगर मैं थोड़ा गहराई से सोचता हूं इस विषय में, तो समझ में आता है कि अंग्रेजी में हमारे देश का कितना नुकसान किया है।
आज हमारे यहां सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्र में युवाओं को शिक्षा देकर एक उच्च स्तरीय व्यक्ति, शोधकर्ता और बुद्धिजीवी तैयार करते हैं। हम लोग सरकार को जो लगान रुपी कर देते हैं, यह कर सरकार बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शिक्षा व अन्य विषयों पर खर्च करती है। जब बच्चा पढ़ लिख कर सक्षम हो जाता है, कुछ समाज को लौटाने जैसा हो जाता है, उस समय उसे अंग्रेजी की जानकारी रहने के कारण, विदेशी लोग उसे हमारे यहां से ले जाते हैं। यानी बच्चों को तैयार किया हमने, उसके ऊपर पैसा खर्च हुआ देश का, एक मजबूत मानव संसाधन बनाया हमने और उसका फल खा रहे हैं विदेशी। थाली परोस के हमने रखी और खा गया कोई और।
थोड़ा सोचें, क्या चाइना वालों को अंग्रेजी आती है, क्या जापानियों को अंग्रेजी आती है, क्या जर्मन के लोगों को अंग्रेजी आती है ? नहीं । इन लोगों को क्योंकि अंग्रेजी नहीं आती तो इन लोगों को उनके देश ने तैयार करने के लिए उन पर जो खर्च किया है उसका लाभ उनके देश को ही मिल रहा है इसलिए उनका देश अपने ही व्यक्तियों के कारण प्रगति कर रहा है। हमारा सक्षम मानव संसाधन यहां तैयार होकर विदेश जा रहा है। हमारे लोगों के कारण ही विदेशी आगे बढ़ते जा रहे हैं।
किसान अपने यहां की फसल के अच्छे-अच्छे उपज को अपने यहां ही रखता है और बाकी उपज को बेचता है। क्यों ? क्योंकि यह अच्छा उपज वह फ़िर से बोएगा और फिर से अच्छी सफल फसल लेगा। कहने का तात्पर्य है कि अच्छे लोग अगर रहेंगे तो आने वाली पीढ़ी भी अच्छी, सक्षम, बुद्धिमान और कर्मशील होगी। अगर हमारे बुद्धिमान व्यक्ति, हमारे देश से विदेश में जाकर बस गए, तो उनकी संताने विदेश में ही जन्म लेगी। वहां के लोगों को इसका सीधा सीधा लाभ मिलेगा।
गंभीर विषय है। सोचने वाला विषय है। अंग्रेजी आज दूरदराज आदिवासी, देहातों में नहीं गई । वहां की जो संस्कृति है, वहां की जो परंपरा है, वहां का जो रहन-सहन है, वहां की जो जो शोध सालों से तैयार होकर इस्तेमाल की जा रही है वह आज भी प्राचीन काल की ही है। वह हमारे देश की धरोहर है। क्यों ? क्योंकि वहां तक अंग्रेजी नहीं पहुंची।
हमारा फर्ज होता है कि हम देहातों में, आदिवासी इलाकों में, दूरदराज के जंगलों में जो लोग रह रहे हैं यह हमारी सही धरोहर है। इन लोगों को हम सुरक्षित रखें। इनका हम विकास करें। इनका जो ज्ञान है वह ज्ञान का लाभ समाज तक पहुंचाएं। इनको समाज का हिस्सा बनाएं। अंग्रेजी की गुलामी से हटने के लिए हमें इन का सहारा लेना जरूरी है।
जब भगवान रामचंद्रजी इनकी मदद से लंका पर विजय पा सकते हैं, तो हम लोग इन के सहयोग से अंग्रेजी की गुलामी सेमुक्त नहीं हो सकते ? एक सोचने का विषय है।
मैं चाहूंगा कि इसके ऊपर गहराई से चर्चा हो, बहस हो और एक अच्छा निर्णय मेरे देश के हित में ले। देश के ज्ञानी और बुद्धिजीवी, जो मानव संसाधन के ऊपर हमने खर्च किया है वह मेरे देश में ही रहे। इनकी जब पढ़ाई लिखाई हो जाती है तो, कम से कम 20 साल तक ये लोग को मेरे देश में काम करना पड़ेगा। इन्हें पासपोर्ट मर्यादित दिया जाए। इन्हें नौकरी के लिए देश के बाहर जाने नहीं दिया जाए।
महिलाओं को समाज की मध्य धारा से जोड़ना है
पुरुष प्रधान इस समाज में कहीं हम महिलाओं को उनके मूल अधिकार से वंचित तो नहीं रख रहे। उन्हें विकसित होने के लिए जो खुला वातावरण चाहिए, उस वातावरण को हमने कहीं उन तक पहुंचने नहीं दिया। वह जैसे खिल सकती थी, क्या वे वैसी ही है। एक सक्षम मानव संसाधन होने के बावजूद भी जो उनका समाज को देने का अधिकार है या जो समाज को वह दे सकती हैं, वे क्या दे पा रही हैं। इस ओर भी ध्यान देना जरूरी है।
एक महिला जब तक कुंवारी है, वह बाजारों में बगैर रोक टोक के घूमती है। सरपट गाड़ी दौड़ आती है। अपने पिता के ऑफिस का कार्य भी संभालती है। इतना ही नहीं, आजकल पढ़ी-लिखी लड़कियां जब कुंवारी रहती है उस समय वह बाहर जाकर नौकरी करने के लिए भी घर से इजाजत ले लेती है। मगर जैसे ही उसका रिश्ता तय हो जाता है, उसके ऊपर अंकुश लगने शुरू हो जाते हैं। बेटे शाम को जल्दी आ जाया करो। बहुत ज्यादा बाहर मत घूमा करो। आदि-आदि बातें उसको सुननी पड़ती है। क्या यह सही है ?
इसमें कोई शक नहीं की महिला का प्रथम और अहम दायित्व घर परिवार के कार्य करना है । घर की पुरी जिम्मेदारी व देखभाल करना है । हमारी आने वाली पीढ़ी को सक्षम बनाना, उन्हें संस्कार, ज्ञान आदि देना उसे स्वस्थ रखना धर्म आदी परम्परा का निर्वाह करना है । मगर फिर भी घर में रहते हुए, क्या वह अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे सकती है। अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है। इस और भी देखना बहुत जरूरी है।
आज टेक्नोलॉजी का युग है। अब कोई भी चीज दूर नहीं है। अब हमें कार्य के लिए स्वयं को हर जगह हाजिर रखना जरूरी नहीं है दूर बैठे भी हम कार्य कर सकते हैं। अपनी मौजूदगी दर्ज करा सकते हैं। हम इंटरनेट आदि के इस्तेमाल से सब चीजों से जुड़े रह सकते हैं। अगर हम थोड़ा विचार करें कि हमारे व्यापार का जो बैक ऑफिस है, जैसे अकाउंटिंग करना, टैक्स कंप्लायंस करना, बैंकिंग करना, ऑडिट करवाना, सरकारी दफ्तर में जाना आदी यह जो विषय है क्या हमारी पढ़ी-लिखी सक्षम बहुएं यह कार्य नहीं कर सकती ? क्या हम इनको इस कार्य के लिए प्रशिक्षण नहीं दे सकते। इस और अगर हम ध्यान दें तो एक बहुत बड़ा परिवर्तन हमारी कार्यशैली में आ सकता है। फ्रंट ऑफिस, दुकान आदि का कार्य पुरुष करें और बैक ऑफिस का पूरा कार्य महिला घर से बैठकर संभाल ले। अगर ऐसा हमने समाज में परिवर्तन ला दिया तो मैं समझता हूं कि हमारी अर्थव्यवस्था और गतिशील हो जाएगी। महिलाओं का व्यापार में दखल देने से, उसे पुरुष को व्यापार में होने वाली तकलीफों का एहसास हो जाएगा। पैसे कितने उपलब्ध हो पा रहे हैं, आमदनी क्या है, किसका किसका देना है। इन सब बातों से वह अवगत हो जाएगी। वह अपने पति की सहयोगी हो जाएगी। इससे परिवार में वातावरण भी अच्छा हो जाएगा।
हमें प्रेरणा लेना चाहिए देहातों से, दूरदराज के इलाकों से, आदिवासी क्षेत्रों से। वहां सिर्फ पुरुष काम नहीं करते, वहां परिवार कार्य करता है। आप देखें, किस प्रकार से खेती में , दूध व्यवसाय में आदि सभी जगह महिलाएं और पुरुष मिलकर काम कर रहे हैं। परिवार काम कर रहा है और परिवार आगे बढ़ रहा है। हमें इन देहातों में जाना चाहिए। हमें आदिवासी इलाकों में जाना चाहिए और वहां की कार्यशैली का अध्ययन करना चाहिए। परिवार किस तरीके से चलता है। परिवार में आपस में संयम कैसे रहता है। किस प्रकार से साथ बैठकर खाना खाया जाता है। किस प्रकार से आपस में बातचीत की जाती है। यह सारी बातें हमें सिखाएगी की परिवार में कैसे रहना। परिवार को आगे कैसे ले जाना। समाज कैसे कार्य करता है। यह हमें उन इलाकों में जाकर, वहां का अध्ययन करके, सीखना चाहिए। ऐसा मेरा मानना है।
सामाजिक दंड प्रथा/प्रणाली
हम समाज में रहते हैं. समाज के सदस्य हैं. निश्चित रूप से समाज में बनाए गए कानून, नियम और प्रथा के अनुरूप हमें समाज में अपना कार्य करना है. हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना जो समाज में प्रतिबंधित है. मगर हमें वह सब कार्य करना चाहिए जो समाज हमसे अपेक्षा करता है, जो समाज की जरूरतें हैं।
क्या हमारे जो कायदे, नियम, कानून बनाए गए हैं, यह समाज में क्या कार्य करना उस को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं या सिर्फ प्रतिबंधित बातों को उजागर किया गया है। अगर आपने ऐसा किया तो आप को दंड होगा, अगर आपने वैसा किया तो आप को दंड होगा। इस प्रकार की जो प्रथा है, यह एक नकारात्मक दिशा की ओर हमे ले जाती है। हमें कहीं ना कहीं इस बात की ओर भी लोगों का ध्यान आकर्षित करना पड़ेगा कि समाज में रहते हुए आप के दायित्व का निर्वाह आप कर रहे हैं।
अगर आप अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे तो आपके ऊपर सामाजिक दंड क्यों नहीं लगना चाहिए। सिर्फ शासन तंत्र सब कार्य करें और हम सिर्फ उसे उपभोगने का कार्य करें तो देश आगे कैसे चलेगा।
जो जो सुविधाएं प्रकृति ने, पर्यावरण ने, शासन ने हमे दी है, वह उपभोग करने के लिए दी है। इसमें कोई संदेह नहीं है। मगर समाज में हर वर्ग को साथ लेकर चलना, यह किसकी जवाबदारी है। समाज को संगठित करके एक सूत्र में पिरो के रखना, यह किसकी जवाबदारी है। सरकार ने हमे शासन दे दिया , सरकार ने दूरदराज इलाकों तक रोड बना दी, अलग-अलग प्रकार की व्यवस्था, जगह जगह कर दी। यह किस लिए। यह संपर्क करने के लिए।
जिस जिसके पास ज्ञान है, क्या वह अपने से कम ज्ञानी को शिक्षित कर रहा है। जिसके पास अत्यधिक धन है, क्या वह उस धन का सदुपयोग कर रहा है। जिसके पास समय है, क्या वह उस समय को समाज सेवा में व्यतीत कर रहा है।
मानव सेवा आज सबसे बड़ी तपस्या है। यह सबसे बड़ा यज्ञ है। क्या इस यज्ञ में हम आहुति दे रहे हैं।
सामाजिक दंड क्या है। समाजिक दंड यही है कि अगर आप मानव सेवा में समय रहते हुए भी, अपना समय नहीं देते तो आप दंडित होंगे। आपके पास धन है और वह धन का सदुपयोग मानव सेवा के लिए आप नहीं दोगे, तो भी आप दंडित होंगे।
एक अच्छे समाज को निर्मित करने के लिए अगर आपका योगदान नहीं है तो आप दंड के पात्र हैं। हमें सामाजिक दंड समझना चाहिए। यह प्राकृतिक दंड ईश्वरीय दंड है। दिखेगा नहीं, मगर आपको अपने जीवन में कहीं ना कहीं महसूस हो जाएगा। जब महसूस होगा, तब शायद बहुत देर हो चुकी रहेगी। सभी लोगों ने आत्ममंथन करना चाहिए समाज के प्रति मेरे दायित्व को मैं पूरा करू यह देखना चाहिए। अपने आप से ऊपर उठकर समाज सेवा में लीन होना चाहिए। नहीं तो समाज आपको सामाजिक दंड जरूर देगा।
अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज हित को ध्यान में रखकर जब हम समाज में रहेंगे, तो निश्चित रूप से समाज अग्रसर होगा। हमें कहीं ना कहीं, इस बात की तरफ भी लोगों का ध्यान आकर्षित करना पड़ेगा। समाज में रहते हुए आपके दायित्व का निर्वाह आप कर रहे हो या नहीं । अगर आप अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे तो आपके ऊपर सामाजिक दंड लगना चाहिए। अपनी आमदनी का कुछ प्रतिशत हिस्सा समाज के लिए कर रूप में समाज कार्य में लगाएं।
क्या हम भटक रहे हैं
प्राचीन भारत में अलग अलग वर्ण के लोग काम कर रहे थे मगर समाज एक था. संस्कृति एक थी। वर्ण व्यवस्था समाज के लोगों को यह जानकारी देती थी, कौन सा काम कौन करेगा या किस काम के लिए कौन व्यक्ति है। सब लोग अपना अपना नित्य कार्य करते थे । संपूर्ण समाज संगठित था। सारे उत्सव हमारी संस्कृति के अनुसार, सभी लोग परंपरा को ध्यान में रखते हुए अपनी मर्यादा का पालन करते हुए मनाते थे।
इसके विपरीत, अगर हम आज की परिस्थिति देखें, तो हमें एक बिखरा हुआ समाज दिखेगा। अलग-अलग धर्म के लोग, अपने अपने तरीके से बात करने लगे हैं। समाज धर्म, जाति, अपने व्यवसाय से में बट रहा है। इतना ही नहीं, राजनीतिक पार्टी से जुड़े हुए लोग अपने आप को राजनीतिक पार्टी के अनुरूप विभाजित कर रहे हैं। सहनशीलता समाप्त होती जा रही है। छोटी-छोटी बातों को लेकर तकरार हो रहा है। अपने हक की लड़ाई के लिए लोग सड़क पर आ गए हैं। शासन तंत्र, एक मुख दर्शक होकर परिस्थिति देख रहा है। मगर क्या करना चाहिए शायद उसे खुद को समझ नहीं रहा या दूसरी व्यवस्थाओं में इतना उलझ गया है की देशवासियों की और देश की मूल जरूरतों की तरह शायद पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहे। समय रहते समस्याओं का निराकरण नहीं हो रहा। ऐसी परिस्थिति में मेरे देश और देशवासियों का भविष्य क्या एक चिंता का विषय है। एक सोच की बात है।
जिस परिस्थितियों का चित्रण ऊपर किया गया है, यह शहरी इलाकों में पढ़े'लिखों में ज्यादा दिख रहा है। अगर हम देहातों में, आदिवासी इलाकों में भ्रमण करें तो वहां पर आज भी हमें एक समाज दिखता है। गांव वासियों के सुख-दुख को गांव का सुख-दुख माना जा रहा है। सरकारी तंत्र पर भरोसा कम और आपसी मेलजोल पर विश्वास ज्यादा रखते हुए, वे लोग कड़ी से कड़ी परिस्थिति का सामना मिलकर कर रहे हैं। कहने का तात्पर्य है की गांव, देहात, आदिवासी इलाके, यहां के लोग आज भी संगठित हैं। अपने आप को एक संघ में महसूस करते हैं। सारी परेशानियां जो है वे मिलकर सामना करते हैं।
आज समय आ गया है कि हम इस ओर ध्यान दें। हम विकास की बात करें हम, अपने आप को एक शक्तिशाली देश की बात करें, तो यह मुट्ठी भर लोगों से ना होते हुए एक संयुक्त रूप से संगठित समाज की भावना लेकर हम विकासशीलता की ओर अग्रसर हो। आज समय आ गया है हम इस बात को सामने लाएं कि संगठन ही शक्ति है। हमने अपने आप को धर्म, जात, इलाके, बड़ा-छोटा, अनपढ़ इस प्रकार से जो विभाजित कर लिया है तो हमारा समाज खंड खंड होते हुए खंडित हो रहा है। इसे संगठित करने की आवश्यकता है। इसे भारतीय संस्कृति में लाने की आवश्यकता है। इसे एक भाषा प्रधान देश बनाने की आवश्यकता है। आइए हम संकल्प करें और एक संगठित भारत की ओर कदम बढ़ाए।
क्या समाज में लिंगभेद जरूरी
हमारा देश विश्व की सबसे बड़ी युवा शक्ति बनने जा रहा है. विश्व में बच्चों की पैदावार कम हो जाने की वजह से वहां पर युवा समाप्त होते जा रहे हैं. युवा की तादाद कम होती जा रही है और बुजुर्ग तेजी से बढ़ रहे हैं. कई देशों में ऐसी परिस्थिति आ जाएगी कि करीब 40 साल के बाद, उनके देश के मूल लोग शायद वहां ना बचे।
हमारे देश में युवाओं की बहुत अच्छी संख्या है। क्या इसका कारण हमारे समाज में जो, समाज की प्रणाली बनाई कि पुरुष क्या कार्य करेंगे और महिलाएं क्या कार्य करेगी, उसके आधार पर समाज विभाजित किया, इसलिए आज हमारे पास युवा शक्ति खड़ी है।
हमारे पास महिला शक्ति भी खड़ी। आज सामाजिक कार्य जो चल रहे हैं इसमें महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है। महिलाएं हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति, हमारे विभिन्न उत्सव, हमारे धर्म-कर्म, हमारे संस्कार आदी सब को लेकर चल रही है। इतना ही नहीं, वह यह सारे ज्ञान व रश्मो से आने वाली पीढ़ी को सुशिक्षित कर रही है। अतः क्या यह मान ले कि जो हमारी पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था है, यह एक आदर्श व्यवस्था है। इस व्यवस्था को किसी भी प्रकार से हानी ना हो। यह ऐसी ही चलती रहे।
इस सोच के विपरीत एक नई सोच भी जन्म ले रही है। आज के आधुनिक युग में लड़कों की पाठशाला अलग और कन्या पाठशाला अलग का सिद्धांत समाप्त हो गया हैं । पढ़ाई लिखाई अब बच्चे साथ साथ कर रहे हैं। पढ़ लिख कर अपना भविष्य बनाने की कामना कर रहे हैं ।जो सपने लड़के देख रहे हैं, वही लड़कियां भी देख रही हैं । आज रोजगार पाने की कतार में लड़के और लड़कियां बराबरी के अनुपात में मिलते हैं। लड़कियां भी अपना भविष्य अपने तरीके से बनाना चाहती है।
सवाल सामने आता है कि क्या आधुनिक पाठ्यक्रम व ज्ञान की परिभाषा हमारी धरोहर को, हमारी प्राचीन सोच को, हमारी समाज को गठित करके रखने की पद्धति को चुनौतियां तो नहीं दे रही। क्या पश्चिमी शिक्षा हमारे ऊपर हावी हो गई है। क्या हम लोगों की, खुद की सोच अब दूसरों की सोच से प्रभावित हो रही है। क्या हमारा प्राचीन समाज एक उच्च स्तर का समाज नहीं था। क्या महिलाओं को उच्च सम्मान नहीं मिल रहा था।
कहीं ना कहीं हमारी संस्कृति के ऊपर शत्रुओं द्वारा एक आक्रमण हो रहा है। हमारी संस्कृति को समाप्त करने का युद्ध छिड़ गया है। समय रहते हमे यह समझना होगा कि मेरी ही संस्कृति सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। हमारी सामाजिक कार्य प्रणाली , यह प्रणाली युगो युगो तक हमें संगठित रख सकती है।
यह बातें समय की मांग है। यह बातों को सोचना अति आवश्यकत हैं । मेरा यही मानना है कि समाज कैसे चले, हमारे आपस के रिश्ते कैसे रहे, किसकी क्या जवाबदारी है, इसका भी एक सामाजिक संविधान हमें तैयार करना चाहिए। इस संविधान की मूल भावना, हमारी जो भारतीय संस्कृति है, उससे उत्पन्न होकर आगे बढ़ना चाहिए। मेरा देश, मेरी दुनिया के आधार पर एक संगठित समाज बनाकर आगे बढ़े यही सोच है।
मुझे एक लेखक की कुछ पंक्तियां याद आई है। मैं वह पंक्तियां नीचे लिख रहा हूं। हमें इन पंक्तियों से भविष्य के समाज को समझना है। इन पंक्तियों के आधार पर हमारा रहन सहन कैसा रहेगा, हमारा परिवार कैसे आगे बढ़ेगा, हमारा समाज आगे कैसे बढ़ेगा इसका बहुत अच्छा उल्लेख है। इसकी भावना से जाएं और समझ कर नए समाज को गठित करने के लिए हम अग्रसर हो। यही एक सोंच हैं ।
मैं सोता हूं घर में शांति छा जाती है, वह सोती है घर में सूनापन छा जाता है।
मैं घर लौटता हूं घर में शांति हो जाती है, वह घर लौटती है घर में रौनक हो जाती है।
मैं सोकर उठता हूं, घर में फरमाइश से गुजरती है, वह सो कर उठती है, घर में पूजा की घंटियां गूंजती है।
मेरा घर लौटना, उसका आत्मविश्वास बढ़ाता है, उसका घर लौटना, घर में लक्ष्मी व अन्नपूर्णा का वास होता है।
पत्नी सरल भाव में उपहास की पात्र नहीं है, वह हमसफ़र है, रक्षक है, वह परिवार की शक्ति है।
जिस तरह से आज लिंग भेद की समाप्ति की ओर हम बढ़ रहे हैं। जिस तरह से 30-30 साल हो जाने के बावजूद भी बच्चे अपनी पढ़ाई में मस्त हैं। अपने भविष्य को बनाने के लिए शादियां नहीं कर रहे। जिस तरीके से कम बच्चे सक्षम परिवारों में पैदा हो रहे हैं।
हमें देखना पड़ेगा कि अगर यही बातें आगे चलती रही तो आज से 50 साल बाद, आज से 100 साल बाद हम कहां रहेंगे। हमारे समाज में कितने युवा रहेंगे। हमारे देश की जनसंख्या कितनी रहेगी। हम विश्व में कहां खड़े रहेंगे। यह सोचने का समय आ गया है। मेरे यहां के बुद्धिजीवी बच्चे विदेशों में जाकर नौकरियां कर रहे हैं। मेरे यहां अब बच्चों की पैदावार कम होती जा रही है। जिस तरीके से शादियों में विलंब हो रहा है तो 30-35 साल में एक पीढ़ी कम होती जाएगी।
समय की आवश्यकता है। सोचिए क्या जिस दिशा में हम निकल पड़े हैं, यह सही दिशा है। हमे सोचना पड़ेगा की 50 साल आगे 100 साल आगे हमारा समाज कैसा होगा ।
आर्थिक मजबूती के लिए भारतीय उत्सव मनाए
हमारे अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक गतिविधियां साल भर चलती रहे इसका बहुत ही अच्छा इंतजाम किया है. हर किसी के व्यवसाय में किसी न किसी प्रकार से आमदनी होती रहे उसके लिए भारतीय उत्सव की श्रंखला बनाई गई है. इन उत्सव की रचना इस प्रकार की गई है कि उसको मनाते समय अनेकों लोगों को रोजगार मिलता है और अनेकों लोगों का माल बिकता है. यह सब प्रदूषण रहित है और किसी भी प्रकार से हमारी प्राकृती या पर्यावरण को हानी नहीं होती।
जरा सोचने का प्रयास करें। हमारे जो उत्सव मनाए जाते हैं, इन उत्सवों में कितना व्यापार होता है। किन लोगों का व्यापार होता है। किस वर्ग के लोगों को रोजगार मिलता है। यह क्या एक बहुत बड़ी आर्थिक गतिविधि नहीं मानी जानी चाहिए।
शहरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बड़े औद्योगिक घराने खुदरा व्यापार में घुसते चले जा रहे हैं। आर्थिक गतिविधियों पर कब्जा करने की एक होड लग गई हैं। हमारे देश में रोजगार के नाम पर स्वरोजगार ही सबसे बड़ा रोजगार का साधन है। हमें उन आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना है, प्रोत्साहन देना है जो हमारे साधारण से साधारण व्यक्ति को रोजगार पहुंचा सके। ग्रामीण इलाके के लोगों को रोजगार पहुंचा सके।
ऐसी परिस्थिति में अगर हम हमारे छोटे से छोटे धार्मिक उत्सव, छोटी-छोटी धार्मिक परंपराओं को आगे बढ़ाने का काम करें, प्रसिद्धि दे और मिलकर उसके महत्व और उनकी मान्यता के अनुरूप हम उन्हें मनाना शुरू करें, तो हम देखेंगे कि इन मान्यताओं के आधार पर हमने एक बहुत बड़ा रोजगार छोटे छोटे लोगों के लिए खड़ा कर दिया हैं। हमारे धार्मिक उत्सव में फल वाले, सब्जी वाले, बाजार की अलग-अलग प्रकार की जड़ी बूटी, फूल, पत्ती आदी बेचने वाले इन सब का समावेश होता है। यह कार्य बड़ी कंपनियां नहीं कर सकती। साधारण लोग ही करेंगे। मिट्टी के बर्तन, यह भी हमारे पारंपरिक उत्सव का एक अंग है। कुम्हारों को रोजगार मिलेगा।
मैं यही मानता हूं की प्राचीन काल में हमारे देश में सब को रोजगार था। सबका घर चलता था। सब किसी न किसी रूप में आमदनी प्राप्त कर रहे थे। किसान को सम्मान था। हम जमीन से जुड़ी हुई प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल कर रहे थे। इन चीजों से प्रदूषण नहीं होता था तथा इनका पर्यावरण पर कोई असर नहीं हो रहा था।
आओ अपनी प्राचीन कला, प्राचीन ज्ञान, प्राचीन संस्कृति का अभ्यास करें। हम खुद समझें और समाज को समझाएं। आने वाली पीढ़ी को कम उम्र से ही इन सारी बातों का महत्व हम बताना शुरू करें। बच्चे को स्कूलों में शिक्षण व शिक्षा मिल रही है और जो शिक्षक है उससे बच्चे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
अधिकांश स्कूलें हम वैश्य लोगों द्वारा संचालित हैं। स्कूल के पाठ्यक्रम में हम एक अतिरिक्त विषय, हमारी प्राचीन मान्यता और उसके लाभ विषय पढाये। ये विषय लेकर बच्चों के अंदर हम भारतीय संस्कृति, भारतीय ज्ञान और प्राचीन काल से चले आ रहे हमारे सभी उत्सवों का महत्व बताएं। इससे नई पीढ़ी, नई सोच और नए ज्ञान के साथ खड़ी हो जाएगी। बच्चे जमीनी हकीकत जान जाएंगे। हमारे ऋषि मुनियों की तपस्या से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका जिनोद्धार हो जाएगा। एक नया समाज तैयार हो जाएगा।
हम सबको मिलकर एक नए भारत ,एक नई भारतीय सोच का निर्माण करना है। हमें आने वाली पीढ़ी को एक मजबूत भारतीय सभ्यता से ओतप्रोत ज्ञानी पीढ़ी तैयार करना है। यह पीढ़ी के बच्चे विदेश नौकरी के लिए नहीं जाएंगे। मेरे देश में ही अपने ज्ञान को आगे बढ़ाएंगे। हर किसी को रोजगार दिलाएंगे। ऐसा भारत निर्माण करना पड़ेगा हमें।
आर्थिक मजबूती के लिए भारतीय उत्सव मनाए
हमारे अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक गतिविधियां साल भर चलती रहे इसका बहुत ही अच्छा इंतजाम किया है. हर किसी के व्यवसाय में किसी न किसी प्रकार से आमदनी होती रहे उसके लिए भारतीय उत्सव की श्रंखला बनाई गई है. इन उत्सव की रचना इस प्रकार की गई है कि उसको मनाते समय अनेकों लोगों को रोजगार मिलता है और अनेकों लोगों का माल बिकता है. यह सब प्रदूषण रहित है और किसी भी प्रकार से हमारी प्राकृती या पर्यावरण को हानी नहीं होती।
जरा सोचने का प्रयास करें। हमारे जो उत्सव मनाए जाते हैं, इन उत्सवों में कितना व्यापार होता है। किन लोगों का व्यापार होता है। किस वर्ग के लोगों को रोजगार मिलता है। यह क्या एक बहुत बड़ी आर्थिक गतिविधि नहीं मानी जानी चाहिए।
शहरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बड़े औद्योगिक घराने खुदरा व्यापार में घुसते चले जा रहे हैं। आर्थिक गतिविधियों पर कब्जा करने की एक होड लग गई हैं। हमारे देश में रोजगार के नाम पर स्वरोजगार ही सबसे बड़ा रोजगार का साधन है। हमें उन आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना है, प्रोत्साहन देना है जो हमारे साधारण से साधारण व्यक्ति को रोजगार पहुंचा सके। ग्रामीण इलाके के लोगों को रोजगार पहुंचा सके।
ऐसी परिस्थिति में अगर हम हमारे छोटे से छोटे धार्मिक उत्सव, छोटी-छोटी धार्मिक परंपराओं को आगे बढ़ाने का काम करें, प्रसिद्धि दे और मिलकर उसके महत्व और उनकी मान्यता के अनुरूप हम उन्हें मनाना शुरू करें, तो हम देखेंगे कि इन मान्यताओं के आधार पर हमने एक बहुत बड़ा रोजगार छोटे छोटे लोगों के लिए खड़ा कर दिया हैं। हमारे धार्मिक उत्सव में फल वाले, सब्जी वाले, बाजार की अलग-अलग प्रकार की जड़ी बूटी, फूल, पत्ती आदी बेचने वाले इन सब का समावेश होता है। यह कार्य बड़ी कंपनियां नहीं कर सकती। साधारण लोग ही करेंगे। मिट्टी के बर्तन, यह भी हमारे पारंपरिक उत्सव का एक अंग है। कुम्हारों को रोजगार मिलेगा।
मैं यही मानता हूं की प्राचीन काल में हमारे देश में सब को रोजगार था। सबका घर चलता था। सब किसी न किसी रूप में आमदनी प्राप्त कर रहे थे। किसान को सम्मान था। हम जमीन से जुड़ी हुई प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल कर रहे थे। इन चीजों से प्रदूषण नहीं होता था तथा इनका पर्यावरण पर कोई असर नहीं हो रहा था।
आओ अपनी प्राचीन कला, प्राचीन ज्ञान, प्राचीन संस्कृति का अभ्यास करें। हम खुद समझें और समाज को समझाएं। आने वाली पीढ़ी को कम उम्र से ही इन सारी बातों का महत्व हम बताना शुरू करें। बच्चे को स्कूलों में शिक्षण व शिक्षा मिल रही है और जो शिक्षक है उससे बच्चे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
अधिकांश स्कूलें हम वैश्य लोगों द्वारा संचालित हैं। स्कूल के पाठ्यक्रम में हम एक अतिरिक्त विषय, हमारी प्राचीन मान्यता और उसके लाभ विषय पढाये। ये विषय लेकर बच्चों के अंदर हम भारतीय संस्कृति, भारतीय ज्ञान और प्राचीन काल से चले आ रहे हमारे सभी उत्सवों का महत्व बताएं। इससे नई पीढ़ी, नई सोच और नए ज्ञान के साथ खड़ी हो जाएगी। बच्चे जमीनी हकीकत जान जाएंगे। हमारे ऋषि मुनियों की तपस्या से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका जिनोद्धार हो जाएगा। एक नया समाज तैयार हो जाएगा।
हम सबको मिलकर एक नए भारत ,एक नई भारतीय सोच का निर्माण करना है। हमें आने वाली पीढ़ी को एक मजबूत भारतीय सभ्यता से ओतप्रोत ज्ञानी पीढ़ी तैयार करना है। यह पीढ़ी के बच्चे विदेश नौकरी के लिए नहीं जाएंगे। मेरे देश में ही अपने ज्ञान को आगे बढ़ाएंगे। हर किसी को रोजगार दिलाएंगे। ऐसा भारत निर्माण करना पड़ेगा हमें।
व्यापार करने का कौशल क्या समाप्ति की ओर जाएगा
व्यापारियों के परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी आ रहे बदलाव को जाने और समझें की भविष्य में व्यापारियों का परिवार कहां जा रहा है। अगर हम प्राचीन काल की बात करें , तो भारत विश्व में सबसे बड़ा व्यापारी क्षेत्र था। यहां के व्यापारी पूरे विश्व की मंडियों के छाए हुए थे। विश्व का दो तिहाई व्यापार भारत देश के व्यापारी कर रहे थे. यहां से जहाज भरकर माल विदेशों में जाता था और वहां से माल बिक कर सोने के रूप में हमारे देश में आता था. इसलिए हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाने लगा.
भारत के व्यापारी सबसे बड़े सम्मान के अधिकारी रहते थे. वह अपना व्यापार सम्मान से करते थे और स्वाभिमान से अपना जीवन व्यतीत करते थे. व्यापार करते करते औद्योगिक क्षेत्र में भी प्रवेश कर गए और इसीलिए विश्व भर के लोगों की नजर हमारे देश पर पड़ने लगी. लुटेरे हमारे देश में लूटमार करने आने लगे। कुछ विदेशी लोग हमारे से व्यापार करने के इच्छुक हमारे देश में आए। व्यापार करते करते हमारे देश की राजनीति में दखल करने लगे और फिर हमारे देश पर हुकूमत करने लगे। शायद यही दुर्भाग्य रहा।
अब हमारे देश के लोगों से व्यापारियों से ज्यादा इज्जत इन विदेशों की होने लगी। व्यापारी अपनी अस्मिता और जगह बनाए रखने के लिए आजादी के दीवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर, तन मन धन से देश को आजाद कराने में लग गये। व्यापारियों का यही सोचना था कि अगर विदेशी राज्य को समाप्त कर दिया गया और हमारा देश, हमारे लोगों द्वारा चलाया जाने लगा तो हमारे देश में हम व्यापारियों की इज्जत पुनः स्थापित हो जाएगी।
आजादी के बाद परिस्थितियां बहुत तेजी से बदली। व्यापार करने के तरीकों में बदलाव दिखने लगा। नए नए कानून और नई कार्यशैली हमारे देश में आने लगी । आजादी के बाद परमिट राज और कोटा राज आ गया। लाइसेंस राज और इंस्पेक्टर राज अपनी जड़े मजबूत करता चला गया। यह प्ररणाली प्रचलित होने से हमारी व्यापार करने की क्षमता थी, वह कोटा और परमिट लेने के तौर तरीके में जाने लगी। एकाधिकार का व्यापार चलने लगा। कम मेहनत में ज्यादा आमदनी होने लगे। हम जो अपने कौशल और कार्यशैली से माल निर्मित करते थे और कम से कम कीमत पर ग्राहकों तक, उपभोक्ताओं तक पहुंचाने की क्रिया में महारथी थे, वे आज अपना कौशल भूल कर सिर्फ परमिट कैसे हासिल करना, लाइसेंस कैसे हासिल करना और मनचाहे भाव में माल बेचने की कला सिखने लगे। समाज सेवकों को क्या कार्य कैसे करना समझाने की जगह अब व्यापारी समाज सेवक राजनीतिज्ञ लोगों की चमचागिरी करने में मशगूल हो गया। हमारी कार्य क्षमता पर इसका विपरीत असर पड़ा लगा। अपने कार्यालय में बैठकर काम करने की जगह हम लोग सरकारी दफ्तरों म चक्कर लगाना शुरू करने लगे। राजनेता और अधिकारियोंं से काम कैसे निकलवाना, इसी में महारथी पाने में हम लोग लग गए।
व्यापार अब मुख्यधारा से हटकर सरकारी प्रणाली में काम कैसे करना और कराना उसमें हम लोग लग गए। कहने का मतलब है, धीरे धीरे हम लोग आराम की जिंदगी की ओर बढ़ने लगे। अपने संपर्क से काम करवा कर ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की लालसा बढ़ने लगी। अब हमारे व्यापार में उसका कच्चा माल कोई सामान नहीं था बल्कि पैसा लगाओ और पैसा कमाओ की पद्धति शुरू हो गई। हम लोग व्यापार करने में कमजोर होने लगे। यही बात आगे बढ़ते बढ़ते इंस्पेक्टर राज और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो गई। व्यापार करना कठिन होता चला गया । व्यापारी एक तरीके से अधिकारियों का गुलाम हो गया।
अब सरकार को ऐसा लगने लगा है कि हमारे देश के व्यापारी से अच्छे विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश में अच्छा व्यापार कर सकेगी। इसलिए ऐसी नीति बनाई जा रही है कि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियां अपना कब्जा जमा लें। ऑनलाइन, ई-कॉमर्स में सख्त नियम ना होने की वजह से, यह बड़ी कंपनियां हमारे उपभोक्ताओं को बहुत अच्छे से ठगने का काम कर रही है।
अगर देश की सरकार, देश के व्यापारियों पर भरोसा नहीं करती और विदेशियों पर भरोसा करेगी तो उस देश में जनता का क्या हाल होगा यह समझना जरूरी हैं । इतिहास गवाह है, कि यह विदेशी व्यापार करने देश में आए और फिर किस तरीके से उन्होंने देश पर अपनी हुकूमत कायम की। इतिहास से सीखना जरूरी है।
अब देखे यह बड़ी कंपनियां क्या कर रही है। यह बड़ी कंपनियां हमारे ही देश के युवाओं को अपने यहां नौकर रख रही है। उन्हें मोटी तनख्वा मिल रही है और काम करने का सीमित समय और अच्छा वातावरण दे रही है । ऐसे में युवा पीढ़ी क्या कर रही।
आने वाली पीढ़ी इंस्पेक्टर राज और भ्रष्टाचार सहन करनेेे तैयार नहीं थी। व्यापारियों ने अपनेे बच्चों को पढ़ाना लिखा शुरू कर दिया। व्यापारियों के बच्चे नए वातावरण में पलने फूलने लगे। उन्हें आरामदायक जिंदगी जीने की आदत हो गई थी। ऐसे में यह व्यापारियों के बच्चे जो मालिक बनकर दूसरों को रोजगार देने का हुनर रखते थे, दूसरों से काम करवाने का हुनर रखते थे, आज यह व्यापारियों के बच्चे बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं। इसका सीधा मतलब है, कि व्यापार करने का हुनर रखने वाले व्यापारियों की आने वाली पीढ़ियों में यह कौशल समाप्त हो जाएगा और वह नौकरों की जिंदगी, गुलामी में अपना जीवन व्यतीत करने लगेंगे।
जंगल का एक मजबूत शेर, चिड़ियाघर या सर्कस के पिंजरे का शेर हो जाएगा। जिसको बैठे बैठे खाना मिलेगा और जैसा बताएं वैसा करतब दिखाना होगा। जरा सोचिए ?
आओ विश्व अर्थव्यवस्था को करें मुट्ठी में
आज पूरे विश्व में अर्थव्यवस्था पर कब्जा करने का युद्ध छिड़ चुका है। हर देश, दूसरे देशों की मंडियों में अपना कब्जा जमाने के लिए अपने-अपने देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रोत्साहन दे रहे हैं। कई बड़े देश विकासशील देशों की नीतियों में हस्तक्षेप करके वहां के पुराने कानून, पारंपरिक सोच आदी को बदल कर आधुनिक सोच का नाम देकर नई वस्तुएं बाजार में डाल रहे हैंं ।
तंत्रज्ञान के इस युग में e-commerce, विज्ञापन, ब्रांडिंग आदि माध्यमों से हर बहुराष्ट्रीय कंपनी अर्थव्यवस्था में अपनी पैठ जमाने के लिए मेहनत कर रही है। ऐसी परिस्थिति में हम हिंदुओं का क्या धर्म है ? क्या कभी हमने सोचा ?
मेरा ऐसा मानना है कि इस आर्थिक युद्ध में, अगर हिंदू व्यापारी सेना सक्रियता से हिस्सा लेती है, तो निश्चित रूप में हम विश्व अर्थव्यवस्था के विजेता हो सकते हैं। कुछ मूल बातें हमें ध्यान रखना होगा। उन पर गौर करना होगा। उन पर चिंतन-मंथन करना होगा । किस मार्ग से हम विश्व अर्थव्यवस्था के गुरु/अर्थव्यवस्था के राजा बन कर विश्व अर्थव्यवस्था का संचालन करने वाले बन सकते हैं, यह हमे सोचना होगा।
यहां हमें यह बात बताना जरूरी है कि हमारे देश में उच्च शिक्षा प्राप्त, मजदूरी, मेहनती लोग अपने कौशल विकास व कौशल कला से पूरे विश्व में फैल गए हैं। ऐसा कोई देश नहीं होगा जहां भारतीय मूल के लोग नहीं हो। बहुत से देश ऐसे हैं जहां कई पीढ़ियों से भारतीय मूल के लोग रह रहे है। इन लोगों ने उन देशों में अपनी अच्छी पकड़ भी बना रखी है। ऐसी परिस्थिति में क्या हम इन लोगों की सहायता से कुछ व्यापारिक फायदा ले सकते हैं।
मुझे हमारे प्रधानमंत्री आदरणीय श्री नरेंद्र मोदी जी की वह बात याद आती है, जब उन्होंने कहा था कि अगर हमारे देश की सीमाएं कोई बढ़ा सकता है तो वह सिर्फ और सिर्फ व्यापारी हैं । अगर व्यापारी संगठित होकर मजबूती से विश्व में अपना दायरा फैलाएगा तो हमारे देश की आर्थिक सीमाएं फैलती चली जाएगी । हो सकता है कि एक समय ऐसा आएगा कि उन हर देशों की आर्थिक अर्थव्यवस्था में हमारी पकड़ ऐसी मजबूजा हो कि, सूरज 24 घंटे जहां भी अपनी रोशनी दे रहा हो वहां भारतीय मूल के लोगों का अर्थव्यवस्था में कब्जा है।
हमें यह भी समझना है, अगर एक व्यक्ति शिखर पर पहुंच गया और वहां से उसने रस्सी नीचे छोड़ा तो उस रस्सी के सहारे हम सभी लोग शिखर पर पहुंच सकते हैं।
हमारे हिंदू भाई, पूरे विश्व में फैले हुए हैं । इन भाइयों का हम कैसे लाभ ले सकते है, यह भी सोचना होगा।
अगर हम प्राचीन काल में जाएं, तो आप देखेंगे कि जब गांव में किसी को भी व्यवसाय के लिए बाहर जाना होता था, तो वह गांव के लोगों से जानकारी लेता था कि बाहर कौन-कौन से शहरों में, प्रदेशों में परिचित लोग हैं। उनके पते लेकर उन शहरों में, प्रदेशों में वह व्यक्ति जाता था। परिचित लोगों से बातचीत करके, धीरे-धीरे अपने पैर जमाता था । फिर एक एक कर के परिवार के लोग उस शहर में आने लगते थे।। एक बड़ा पूरा व्यापारिक साम्राज्य इन लोगों ने उन शहरों में तैयार किया है।
मेरा यह मानना है की वर्ल्ड हिंदू इकोनामिक फोरम, यह एक ऐसी रस्सी है, जिस रस्सी को पकड़कर हम शिखर पर बैठे हमारे भाई की मदद और सहयोग से शिखर पर पहुंच सकते हैं। *वर्ल्ड हिंदू इकोनोमिक फोरम* में अगर हम सक्रियता से हिस्सा लें, इस फोरम की बातों को समझें और इस फोरम के माध्यम से हम पूरे विश्व में हमारी व्यापारिक गतिविधियों का जाल कैसे फैलाया जा सकता है यह समझे, तो निश्चित रूप से हमारा व्यापार कई गुना बढ़ सकता है।
हमारे देश से निकलकर कर हम परदेश तक जा सकता है। हमें एक दूसरे को जानना होगा, एक दूसरे के साथ चलना होगा, एक संगठित हिंदू आर्थिक फोरम तैयार करना होगा।
हमें बताने की जरूरत नहीं है, कि विश्व में अलग-अलग धर्म-जाति के लोग, अपने अपने इकोनामिक फोरम बना रखे हैं । वे अपने-अपने बैंक तैयार करके, अपने धर्म, अपनी जाति के लोगों को व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
इसमें गलत क्या है। हम क्यों नहीं कर सकते? जरूरज है की हम संगठित होकर, संकल्प ले की जैसा संगठन के लोग हमें मार्गदर्शन करते हैं, उस मार्गदर्शन पर हम चले। ऐसा करें तो मुझे नहीं लगता कि हमें आर्थिक विश्व गुरु बनने में कोई रूकावट आएगी।।
यहां एक और बात समझना जरूरी है। हमारे देश के लोग विश्व के हर देशों में जा चुके हैं। तो हमारे देश का खानपान, कपड़े, उत्सव आदि सभी चीजों की विश्व के हर देश में मांग बढ़ती जा रही है। हमारे यहाँ निर्मित समान को अब विदेशी लोग अच्छे नजरिए से देखने लगे हैं। उसे ग्रहण करने लगे हैं। हमारी लुंगी, कुर्ता, पजामा आदि सभी चीज विदेशी लेने लगे हैं।
आप अगर हिंदू धर्म की बात करें तो भगवान श्री रामचंद्र जी व श्री कृष्ण जी के भक्त रोज विदेशों में बढ़ते जा रहे हैं। यह क्यों हो रहा है? क्योंकि हमारे धर्म कि जो बुनियाद है, यह बहुत मजबूत है। हमारा धर्म हमें अच्छे आचरण और विचार देता है। एक अच्छा समाज बनाने की प्रेरणा मिलती है। इसी के लिए विश्व में हमारे देश की वस्तुएं प्रचलित होती जा रही है। जब यह चीजें प्रचलित हो जाती है तो इससे संबंधित वस्तुओं की मांग बढ़ने लग जाती है। यह मांग हमारे देश के व्यापारी पूरी कर सकते हैं। जरूरत है, हमें हमारी सोच में बदलाव लाने की, विश्व में व्यापार करने की इच्छा अपने अन्दर जाग्रत करने की , बाहर निकलने की अपने अंदर सोच जाग्रत करने की ।
हमारा ऐसा मानना है, कि आप पर्यटन के लिए बाहर जा रहे हो। एक बार व्यापारिक पर्यटन, आर्थिक पर्यटन, विश्व आर्थिक गुरु बनने के लिए पर्यटन करके तो देखें। होटलों के नाम की सूची बनाकर एक बार वहां के प्रमुख व्यापारियों की आप एक यादी बनाएं और जाकर उनसे मिले। बाहर रिसोर्ट में रुकते हो। अब जाओ तो वहां के व्यापारी क्षेत्र है, मंडियां है, वहां के होटलों में रुके। वहां का अध्ययन करें।
मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे व्यापारियों की जो कार्य शैली है, व्यापारियों के अंदर जो हमारा कौशल हैं, व्यापार करने का तरीका, यह विदेशियों से कई गुना ज्यादा है। हमारे रग रग में, हमारे खून में व्यापार है। सिर्फ जरूरत है हमें अपने आप को बदलने की।
विश्व हिंदू आर्थिक फॉर्म में सक्रिय होना होगा। एक नया व्यापारिक वातावरण तैयार करना होगा। इसका हिस्सा बनना होगा। हमें गर्व होना चाहिए हिंदू होने पर और हमें हिंदू अर्थव्यवस्था विश्व में फैलाने के लिए एक हिंदू सिपाई बन कर कार्य करना होगा। भविष्य में आने वाली पीढ़ी आपके द्वारा किए गए कार्य को सुनहरे शब्दों में अंकित करेगी ऐसी ही सोच से कार्य करना होगा। आइए हम सब मिलकर विश्व हिंदू इकनॉमिक फोरम के सदस्य बने और हिंदू व्यापारिक संस्कृति पूरे विश्व में स्थापित करने के लिए कार्य करें। पूरे विश्व का आर्थिक गतिविधियों की हम रचना करें।